सुरेंद्र तिवारी
कठिन समय में मददगार व्यक्ति भगवान की तरह लगता है। आभार प्रकट करते हुए बार-बार यही वाक्य निकलता है कि मैं इस कठिनाई को झेल नहीं पता। वक्त बीतता है। कुछ समय बाद मदद करने वाले का नाम तक स्मृतियों से नहीं रह जाता, तब मदद का स्वरूप कहां तक याद रहेगा? इतनी कमजोर होती है इंसान की स्मृति। यदि मदद का मामला तत्काल का हो और मदद करने वाला सामने पड़ जाए तब ऐसा भी लगने लगता है कि पूर्व में की गई मदद के बदले वह शख्स मदद मांगने तो नहीं आ गया? यह तो दूर दराज की किसी व्यक्ति के प्रति किए जाने वाले व्यवहार का मामला है। बहुत सारी ऐसी भी स्थितियां होती हैं जब परिवार में भी इस तरह की बातें की जाने लगती है। सभी भाइयों द्वारा की गई मदद याद नहीं रहती। माता-पिता से किए गए वादे भी नहीं याद रहते। मदद के ठीक उल्टा किसी द्वारा किए गए छल और धोखे की बात हमेशा ताजा रहती है और भूलती नहीं। यहां तक की तारीख महीना और साल भी वर्षों बाद तक स्मृतियों में बने रहते हैं। कभी-कभी तो बुरी बातें स्मृतियों में ऐसी हलचल उत्पन्न करने लगती हैं कि मानसिक संतुलन बनाए रखना मुश्किल होने लगता है और यही असंतुलन अप्रिय कदम उठाने को बाध्य कर देता है। यह सोचने की बात है कि हम क्यों किसी की मदद को पल में भूल जाते हैं और किसी के धोखे या अप्रिय बातों को भूल नहीं पाते? कोई हमारी मदद करे तो कोशिश यही होनी चाहिए कि खुद भी मदद के रास्ते पर चलें। ऐसा न हो की दूसरों की मदद करने की हमारे रास्ते सकरे हो जाएं। परिवार से लेकर समाज तक में कभी-कभी ऐसा वक्त आ जाता है, जब हमें मदद की जरूरत पड़ती है।
याद रखें की मदद विकट परिस्थितियों में ही दवा होती है। अत: मदद की हमारी भावना मजबूत होनी चाहिए। मदद करने वाले के लिए कोई ने कोई मददगार उसके मुश्किल वक्त पर खड़ा हो ही जाता है।