गंगेश मिश्रा वरिष्ठ पत्रकार
लखनऊ। मनुष्य के जीवन में जो भी परेशानियां, बांधा, दुख, संताप, पीड़ा अभाव आते हैं, वे प्राय: उनके लिए किसी अन्य को दोषी ठहराते हैं। जबकि सभी दुख सुख शांति अशांति, हानि लाभ के पीछे कर्म फल का विधान है। हमारे द्वारा पूर्व में किए गए कर्म का फल ईश्वरीय विधान के अनुसार निश्चित रूप से प्राप्त होता है। पाप एवं बुरे कर्म का फल सुख, आनंद,शांति ,खुशी समृद्धि, पद प्रतिष्ठा है। जीवन में दुख सुख का क्रम निरंतर चलता रहता है। जब दुख की घड़ी जीवन में आती है। तभी हमें जीवन जीने का सच्चा अनुभव एवं सीख प्राप्त होती है और अपने एवं पराये की पहचान भी हो पाती है। प्रतिकूल समय मनुष्य के सोच, समझ को बढ़ाता है। प्राय: लोग प्रतिकूल समय में भयभीत होते हैं और घबराकर अपना धैर्य खो देते हैं। यह उस मनुष्य की कायरता है। प्रतिकूल परिस्थिति में जो संघर्ष रहते हैं, वे ही शूरवीर और कालजई कहलाते हैं। ज्ञानी मनुष्य दुख सुख में समान व्यवहार करते हैं। वह दुख में नहीं दुखी होता है और ना ही सुख में इठलाता है। अपने जीवन की गाड़ी को परमात्मा को सौंप देता है, चाहे परमात्मा जिस तरह से उसकी जीवन की गाड़ी को चलाए। वह सदा परमात्मा के निर्देश की अनुपालन में अपने जीवन जीने का कर्तव्य एवं दायित्व समझता है। भगवान विष्णु के अवतार श्री राम के जीवन में भी दुख आते रहे। माता सीता को गर्भावस्था में वन में रहना पड़ा। उन्होंने इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया। अज्ञानी जन वन गमन के विषय में कैकेयी एवं मंथरा को दोषी ठहराते हैं। जबकि पद्य पुराण में वर्णित है कि माता सीता पर सुक पक्षी की आह का प्रकोप था। श्री राम को विश्व मोहिनी स्वयंवर के दौरान देवर्षि नारद का श्राप था। राजा दशरथ को पुत्र वियोग का श्राप श्रवण कुमार के पिता से मिला था। अत: दुख सुख अपने कर्मों के फल हैं। इनके लिए किसी को दोषी ठहरना अज्ञानता होता है।