राकेश कुमार
लखनऊ। हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली संकट में है। यह प्रणाली तीन स्तरों पर काम करती है। पहले चरण में कोई व्यक्ति अपराध की शिकायत पुलिस स्टेशन में दर्ज कराता है। दूसरे चरण में उस पुलिस अधिकारी का काम शुरू होता है, जो आपराधिक प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत यह जांच करता है कि अपराध हुआ भी है या नहीं । इस बीच, जांच के दौरान यदि कोई व्यक्ति गिरफ्तार हो जाये ?तो संविधान उसे 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करने की व्यवस्था करता है। संबंधित व्यक्ति को अधिकतम 14 दिनों की पुलिस कस्टडी में भेजा जा सकता है। यदि अदालत पुलिस कस्टडी से इंकार करे तो न्यायिक हिरासत का विकल्प है। तीसरा चरण अदालती कार्यवाही का है। जांच पड़ताल के दौरान मजिस्ट्रेट को मामले की जानकारी दी जाती है। इस प्रक्रिया में आरोप तय करने का पड़ाव होता है। फिर जांच एजेंसियां आरोपित पर मुकदमा चलाती हैं। न्याय प्रणाली क्यों संकट में है, इसकी पड़ताल करेंगे तो कुछ कारण सामने आएंगे। जांच अधिकारियों और राजनीतिक प्रतिष्ठान के बीच अक्सर होने वाली सांठ-गांठ एक प्रमुख कारण है। राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों में जांच अक्सर सरकार के करीबी अधिकारियों द्वारा की जाती है। अगर प्रथम सूचना रिपोर्ट में सत्तारुढ़ पार्टी के किसी सदस्य या उससे नजदीकी रखने वाले किसी व्यक्ति का नाम हो तब या तो जांच की ही नहीं जाती या फिर आरोपियों को बचाने के लिए मनगढ़ंत कहानी गढी जाती है। फिर उल्टे पीड़ितों को ही प्रताड़ित किया जाता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि कुछ मामलों, विशेष कर जहां शिकायत करता कोई अल्पसंख्यक हो तो अक्सर ऐसे मामलों की परिणति यही होती है कि आरोपियों में उसी का नाम जुड़ जाता है। ऐसी झूठे मामलों में पीड़ितों को जमानत भी आसानी से नहीं मिलती। इन पीड़ितों की स्थिति से अन्य लोगों के मन में डर बैठ जाता है कि जो न्याय पाने? गए थे, उनके साथ ही अन्याय हो गया है। स्पष्ट है कि जांच इकाई और राजनीतिक बिरादरी में मिली भगत से कभी न्याय नहीं हो सकता। हम जिस संकट से 2,4 हैं, यह पहलू उसके मूल में है। संकट का एक कारण अदालतों से जुड़ा है। जिन मामलों में पुलिस कस्टडी की अवधि समाप्त हो गई हो या आरोप पत्र दाखिल हो गया हो, अक्सर उनमें भी जमानत नहीं दी जाती। कहीं ना कहीं न्यायिक तंत्र स्थापित मानकों के अनुरूप काम नहीं कर रहा। समान अवसर का अभाव कानूनी प्रक्रियाओं को खतरे में डालता है, जबकि यह स्थिति निष्पक्ष एवं निष्कलंक होनी चाहिए। यह भी जनता की नजरों से छिपा नहीं रहता कि कुछ खास न्यायिक अधिकारियों की प्रमुख पदों पर तैनाती की जाती है, जिससे संदेह की सुइ और गहरा जाती है। कुल मिलाकर न्यायिक तंत्र विशेष कर जमानत के मामले में कारगर ढंग से काम नहीं कर रहा। स्वतंत्रता के मूल्य को संविधान और यहां तक की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुमन्य मान्यता के अनुरूप महत्व नहीं दिया जा रहा। जमानत के संदर्भ में न्यायिक अधिकारी जिस हिलावली का परिचय दे रहे हैं, वह गहन चिंता का विषय है
। खासतौर से यह उन मामलों में मुख्यत: प्रकट होता है, जहां फंदा राजनीतिक प्रतिद्वंदियों पर फंसा होता है। ऐसी मामलों में भले ही जांच पूरी हो जाए,? लेकिन जमाना तो नहीं मिलती। यहां तक की शीर्ष न्यायिक स्तर पर यह राहत नहीं दी जाती। ऐसेथ तमाम उदाहरण है, जहां एजेंसियां राजनीतिक विरोधियों को ही नहीं, बल्कि पत्रकारों, छात्रों और अकादमिक जगत से जुड़े उन लोगों को भी निशाना बनाती है, जो सरकार एवं उसकी नीतियों की आलोचना करते हैं। यह सिलसिला खास तौर से चुनाव के आसपास शुरू होता है यह और विकट चिंता का विषय है असहमति की ऐसी आवाजों को दबाकर उन्हें यूएपीए और पीएमलय जैसे कानून के तहत जमानत नहीं दी जाती। इन कानून में खुद को निर्दोष सिद्ध करने का डारो मदार आरोपित पर होता है। अफसोस की बात है कि ऐसा दायित्व कभी पूरा नहीं किया जा सकता और विडंबना यही है कि इस मामले में उदार रवैया अपनाने के बजाय अदालतो ने इन कठिन प्रावधानों को कायम रखा है। पीएमएलए के अंतर्गत प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी को एक प्रकार से असीमित अधिकार मिले हुए हैं और इससे जुड़े मामलों की जानकारी को सार्वजनिक करने की बाध्यता भी नहीं है। इन्हीं अधिकारों के दम पर ईडी को लोगों के पास समन भेजने से लेकर छापेमारी करनी और गिरफ्तारी की शक्ति मिली हुई है। अगर गिरफ्तारी नही हो तो छापेमारी और कुछ जानकारियां मीडिया को लीक करके संबंधित व्यक्ति की फजीहत तो आसानी से करा दी जाती है। इस मामले में गोदी मीडिया आरोपित व्यक्ति को ट्रायल से पहले ही अपराधी के रूप में दिखाने लगता है । क्योंकि ट्रायल में काफी लंबा समय लगता है तो लोगों की ऐसे मामले में उत्सुकता खत्म हो जाती है और अंत में यदि व्यक्ति निर्दोष भी निकले तब तक उसे दोषी के रूप में ही देखा जाता है। ईडी का अधिकार क्षेत्र भी अपार विस्तार लिए हुए हैं। अक्सर राज्य सरकारों को अस्थिर करने में इसकी भूमिका देखी जाती है। वह मुख्यमंत्री, मंत्रियों और यहां तक की प्रशासनिक अधिकारियों तक को निशाने पर लेता है। दुर्भाग्य वस, पीएमएलए को अक्षुण्ण रखकर उच्चतम न्यायालय ने स्वतंत्रता के उद्देश्य को आघात पहुंचा है। यूएपीए जैसे एक अन्य केंद्रीय कानून का भी जांच मशीनरी द्वारा बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया जा रहा है। इसके तहत लोगों की असहमति, सरकारी नीतियों की आलोचना और विरोध प्रदर्शनों को भी आतंकी गतिविधियों में गिना जा रहा है। वह अभी तब जब ऐसे मामलों में कोई हिंसा भी सामने नहीं आती। यह दुखद है कि इसके चलते हाल के दौर में कई युवा छात्रों को सालों साल जेल में गुजारने पड़े हैं। जब तक न्यायिक प्रक्रिया वह सामान स्तर सुनिश्चित नहीं करती , जिसमें अपराधियों पर शिकंजा और निदोर्षों की रक्षा नहीं होगी, तब तक विधि का शासन कायम नहीं हो सकता। स्वतंत्रता के संरक्षण में मीडिया और न्यायालय जैसे दो संस्थान महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। केवल इन्ही पर लोगों का बचा खुचा भरोसा कायम है। अगर यह भी अपने दायित्व निर्माण में नाकाम रहते हैं तो फिर संविधान में निहित स्वतंत्रता सिर्फ कागजी बनकर रह जाएगी।