राकेश कुमार
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चिर-परिचित स्वभाव के अनुरूप एक नए विवाद को जन्म दे दिया है। अभी तक उन्हें इंडिया शब्द बहुत ही प्रिया लगा करता था। उन्हें लगता था कि भारत के बजाय इंडिया कहने में ज्यादा स्मार्ट बोध है। इंडिया से उनकी नारों में टैंकार भी अच्छी बन जाती थी। विपक्ष के अपने गठबंधन का नाम इंडिया करने से पहले उन्हें रोज इंडिया नाम जुड़े स्लोगन को गढ़ने में संतोष मिलता था। मेक इन इंडिया, जीतेगा इंडिया और न जाने कितनी ऐसी स्लोगन की एक लंबी सूची है जो मोदी ने बड़ी उमंग से गढ़ी थी , लेकिन अब उन्हें इंडिया नाम प्रिया नहीं लग रहा है। हर जगह अंग्रेजी में भी लिखा जा रहा है तो इंडिया की जगह भारत जबकि यह अभी तक रहे रिवाज के विपरीत है। अन्य देशों ने भी मोदी की मर्जी देखते हुए इसका अनुसरण शुरू कर दिया है। विपक्ष पूछ रहा है कि क्या कल को अपने गठबंधन का नामकरण इस तरह कर ले कि उसका संक्षिप्त नाम भारत हो जाए तो मोदी भारत नाम को भी बदल डालेंगे। कांग्रेस नेता शशि थरूर ने इस मामले में बीजेपी की बड़ी प्यारी चुटकी ली डाली है। वैसे इंडिया नाम बदलने में कोई हरज नहीं है। यह अच्छा ही है। कहीं ना कहीं इंडिया नाम से औपनिवेशिक काल की स्मृतियां कौंध सी जाती हैं। पर बात निकली है तो तलक जाएगी । इंडिया शब्द ग्रीक भाषा के इंडिके से लिया गया है जो बाद में लैटिन में बदल दिया गया। इंडिके सिंधु नदी से जुड़ता नाम है। इतिहास बताता है कि ईशा के 600 वर्ष पहले यूनानियों ने सिंधु नदी के आसपास के क्षेत्र को भारत कहा था। यह नाम संस्कृत के सिंधु से उत्पन्न हुआ था और बाद में रोमनों ने जब ग्रीक शब्द को अपनाया तो इसका नाम इंडिका हो गया। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में मौर्य साम्राज्य में राजदूत रहे मेगस्थनीज ने अपने लेख में इंडिका के नाम से भारत का परिचय दिया था। लेकिन इस तरह देखे तो हिंदू पहचान भी फारसी भाषा से आई। ईरानियो ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिंदू नाम दिया था। कहा जाता है कि अरब से मुस्लिम हमलावर जब भारत में आए तो इन्होंने यहां के मूल धर्माव लंबियों को हिंदू कहना शुरू कर दिया। क्या इंडिया नाम बदलने के नाम के साथ साथ मुस्लिम हमलावरों की याद दिलाने वाली हिंदू पहचान बदलने के लिए भी योगी कोई कदम उठाएंगे। बीबीसी की डॉट कॉम शिव ने अपनी एक ताज लेख में मजेदार बात बताई कि पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना को भी इंडिया नाम पर आपत्ति थी। वे इसे गुमराह करने वाला नाम बताते थे। जिन्ना वादी होने का टैग जुड़ जाने से भाजपा के एक समय के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी का क्या हश्र हुआ था यह बताने की जरूरत नहीं है। क्या अनजाने में देश के नाम के मामले में जिन्ना की आपत्ति से सहमत होने का आभास पैदा करने में प्रधानमंत्री मोदी को कोई राजनीतिक जोखिम महसूस हो सकती है । निश्चित रूप से यह बातें बहस को पीचीदा बनाने का सगल कहे जाने योग्य है लेकिन यह बात प्रमाणिक है कि अगर औपनिवेशिक अतीत कि हीनता का परिचय देने वाली निशानियों का जुआ उतार फेंकने की कोशिशें हो जिनमें निरंतरता दिखती हो तो यह बहुत स्वागत योग होगा पर मोदी के साथ दिक्कत यह है कि उनमें किसी चीज को लेकर मौलिक प्रतिबद्धता के दर्शन नहीं होते बल्कि उनके द्वारा रातों-रात छेड़े जाने वाले शाब्दिक आंदोलन तात्कालिक होते हैं और अपने प्रतिद्वंद्वी की क्रियाएं देखकर उनके अंदर उपजने वाली नकारात्मक प्रक्रियाओं से प्रेरित होते हैं। इस मामले में उनके उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से तुलना करें तो स्थिति को अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है। योगी कट्टर हिंदूवादी है, यह बात सही है और उनके राजनीतिक विरोधी उन पर यह आरोप भी लगते हैं। अपनी इस प्रतिबद्धता के अनुरूप लगातार उनके पद चाल को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर उनका गोवंश संरक्षण अभियान है जिसके लिए वह किसी भी सीमा तक आगे बढ़े हुए देखे जा सकते हैं, लेकिन इसकी शुरूआत उन्होंने किसी प्रतिद्वंद्वी की उखाड़ पछाड़ के लिए नहीं की। इसी कट्टर हिंदुत्व का निर्वाह करते हुए उन्हें धार्मिक स्थान को अ सजाने संवारने और उनकी कनेक्टिविटी को एक्सप्रेस स्तर पर शुगम बनाने का क्रम चला कर विकास के मानक बदल दिए। वे रामनवमी पर सुंदरकांड का पाठ कराने के लिए बजट आवंटित करते हैं तू यह भी उनके मौलिक प्रतिबद्धता के अनुरूप है।
योगी के यह कदम किसी क्रिया की प्रतिक्रिया का नतीजा नहीं दिखाते । औपनिवेशिक हीनता को मिटाने की कोई मौलिक भावना अगर उनमें होती तो वे पहले इंडिया नाम के प्रति इतना चाव क्यों दिखा रहे थे। लोकतंत्र में होना यह चाहिए कि किसी अप्रत्याशित कदम को कम से कम उठाया जाए। कोई आवश्यक प्रतिबद्धता लगने पर उसके लिए जनमत संगठित किया जाना चाहिए। खुद उनकी पार्टी इसकी गवाह है। उसने सत्ता में आकर धारा 370 खत्म करने, अयोध्या में राम मंदिर बनाने, समान नागरिक संहिता लागू करने और गौ हत्या पर पाबंदी जैसे कदम उठाने की हिमाकत नहीं की बल्कि जब सत्ता उससे बहुत दूर थी तभी जो उसका मूल एजेंडा कहे जाते हैं उनके लिए जनमत संगठित करने का उसने लंबा प्रयास किया। पर मोदी को अपने किसी कदम के लिए जनता को विश्वास में लेने की प्रक्रिया अपनाने में भी तौहीन होती है,यह अहंकार की चरम सीमा है। क्या सत्ता में आने के लगभग 10 वर्ष पूरे होने तक वह पहले से इंडिया के स्थान पर देश का नाम भारत करने के लिए मुहिम नहीं छेड़ सकते थे।वे तो अब इसे लोगों पर थोपने की मुद्रा में हैं और हर चीज में वह यही करते हैं। लोकतंत्र के लिए यह प्रवृत्ति कतईअस्वीकार है। फिर भी अब जबकि उन्होंने औपनिवेशिक हीनता को मिटाने का शंखनाद कर ही दिया है तो उन्हें इस तार्किक बिंदु पर पहुंचने के लिए कुछ और कदम भी उठाने पड़ेंगे तभी मामला संतुलित होगा। क्या मोदी जी को यह पता नहीं है कि क्रिकेट का खेल केवल उन्हीं देशों में होता है जो एक समय इंग्लैंड के गुलाम रहे थे। जलवायु की दृष्टि से भी क्रिकेट भारत के लिए मुफीद खेल नहीं है। क्रिकेट के पीछे एक और खेल होता है सट्टे का खेल जिसकी बदौलत दाऊद इब्राहिम जैसे शैतानों को ताकत मिली और उसने इसका इस्तेमाल हमारे देश में खून की होली खेलने के लिए किया। आज भी क्रिकेट के मूल खेल में इतना वारा न्यारा नहीं होता जितना उस पर खेले जाने वाले सटटे के कारोबार में होता है। तो क्या उन देशों की तरह जिनको आजाद होने के बाद क्रिकेट के खेल को ढोना अपनी खुद्दारी को कचोटने वाला लगा हमें भी इस खेल के तथाकथित ग्लैमर को झटक नहीं देना चाहिए ताकि हमारे परंपरागत खेल कुश्ती,हॉकी, जिमनास्टिक आदि फिर से पनप सके इसी तरह हमें राष्ट्र कुल यानी कॉमनवेल्थ से अलग होने का फैसला घोषित करना पड़ेगा क्योंकि इसकी पदेन अध्यक्ष ब्रिटेन के महाराजा और कल तक महारानी होती थी यह व्यवस्था किसी भी राष्ट्र की संप्रभुता को कचोटने वाली है। इसके अलावा इंडिया ही अकेला क्यों? आगे से किसी भी नारे को, किसी भी आवाहन को अंग्रेजी संपुट के साथ गूंजाने के मोहका संवरण करने की भीष्म प्रतिज्ञा भी प्रधानमंत्री मोदी को लेनी पड़ेगी क्या वे इसके लिए तैयार हैं।